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माया का ज्ञान

परिचय: माया क्या है?

माया शब्द संस्कृत से आया है जिसका अर्थ है “जो नहीं है”। आध्यात्मिक दर्शन में माया का अर्थ है वह भ्रम जो हमें सत्य से दूर रखता है। त्रिज्ञान कार्यक्रम के द्वितीय दिवस में हम इसी माया के विषय में विस्तार से जानेंगे। पहले दिन आत्मज्ञान के माध्यम से हमने जाना कि “मैं कौन हूँ?”, और अब दूसरे दिन हम जानेंगे कि “जगत क्या है?”

जब हम अपने चारों ओर देखते हैं तो हमें एक दृश्य जगत दिखाई देता है – वस्तुएँ, व्यक्ति, घटनाएँ, अनुभव। लेकिन क्या यह सब वास्तव में वैसा ही है जैसा हमें दिखाई देता है? या यह सब एक भ्रम है? आइए इसे गहराई से समझें।

वस्तुनिष्ठता का भ्रम

हम सभी मानते हैं कि हमारे चारों ओर की दुनिया वस्तुनिष्ठ है, यानी सभी के लिए एक समान। उदाहरण के लिए, अगर हम सभी एक टेबल देख रहे हैं, तो हम मानते हैं कि वह टेबल सभी के लिए एक जैसा ही है। लेकिन क्या यह सत्य है?

यहाँ एक सरल उदाहरण लें:

  • एक व्यक्ति को रंग-अंधापन है और वह लाल रंग नहीं देख सकता
  • वह ट्रैफिक सिग्नल को अलग रंग में देखता है
  • दूसरा व्यक्ति उसे लाल में देखता है

तो प्रश्न उठता है: सच क्या है? सिग्नल का वास्तविक रंग क्या है?

इसी तरह, जब दो लोग एक ही घटना देखते हैं, वे उसका अलग-अलग अनुभव कर सकते हैं। एक व्यक्ति को कोई व्यंजन स्वादिष्ट लगता है, दूसरे को वही बेस्वाद। कोई व्यक्ति किसी फिल्म को अच्छा मानता है, दूसरा बुरा। यहाँ सत्य क्या है?

यह दर्शाता है कि जगत वस्तुनिष्ठ नहीं, बल्कि व्यक्तिनिष्ठ है – हर व्यक्ति का अपना अनुभव, अपनी समझ है।

परिवर्तनशीलता: माया का मूल लक्षण

माया का एक मुख्य लक्षण है – परिवर्तनशीलता। जो चीज़ बदलती है, वह सत्य नहीं हो सकती। और हम देखते हैं कि इस संसार में हर चीज़ बदल रही है:

  1. सूक्ष्म परिवर्तन: टमाटर का उदाहरण लें। आज जो ताज़ा है, पाँच दिन बाद सड़ जाएगा। यदि हम समय को तेज़ कर दें तो हम देखेंगे कि टमाटर का वास्तविक अस्तित्व नहीं है – वह सिर्फ एक क्षणिक अवस्था है।
  2. मध्यम परिवर्तन: हमारा शरीर – बचपन से जवानी और फिर बुढ़ापे तक, निरंतर बदल रहा है।
  3. दीर्घकालिक परिवर्तन: पहाड़, नदियाँ, सूर्य, चंद्र – ये सब भी लंबे समय में बदलते हैं।

इस संसार में कुछ भी स्थिर नहीं है, सब कुछ परिवर्तनशील है। और जो परिवर्तनशील है, वह सत्य कैसे हो सकता है?

अनुभव और अनुभवकर्ता

जब हम अपने अनुभवों को देखते हैं, तो हम पाते हैं कि हर अनुभव को अनुभव करने वाला कोई होना चाहिए। उदाहरण के लिए:

  • टेबल दिखता है – अनुभव
  • मैं देखता हूँ – अनुभवकर्ता

इसी तरह:

  • दर्द होता है – अनुभव
  • मैं महसूस करता हूँ – अनुभवकर्ता

हमारे सभी अनुभव बदलते रहते हैं – सुख-दुःख, भूख-प्यास, संवेदनाएँ, विचार – लेकिन अनुभवकर्ता वही रहता है। यह अनुभवकर्ता ही आत्मज्ञान में जिसे हमने “मैं” के रूप में जाना, वही एकमात्र स्थिर तत्व है।

माया की चार विशेषताएँ

माया के मुख्य लक्षण हैं:

  1. परिवर्तनशीलता: जगत में हर चीज़ बदलती है।
  2. अनित्यता: कुछ भी स्थायी नहीं है, सब नाशवान है।
  3. भ्रामकता: चीज़ें वैसी नहीं होतीं जैसी दिखती हैं।
  4. व्यक्तिनिष्ठता: हर व्यक्ति का अनुभव अलग होता है।

फिल्म और सपने का उदाहरण

माया को समझने का एक अच्छा तरीका है फिल्म या सपने का उदाहरण। जब हम फिल्म देखते हैं, तो हम जानते हैं कि वह असत्य है, फिर भी हम उसमें डूब जाते हैं। हम खुश होते हैं, दुःखी होते हैं, डरते हैं – सब कुछ फिल्म के अनुसार अनुभव करते हैं। लेकिन फिल्म खत्म होने पर हमें याद आता है कि वह सब असत्य था।

इसी तरह सपने में भी – सपने के दौरान हमें लगता है कि वह सब सत्य है, लेकिन जागने पर पता चलता है कि वह सब माया थी।

क्या यह जीवन भी ऐसा ही नहीं है? हम इसमें डूबे हैं, इसे सत्य मानते हैं, लेकिन यह भी एक लंबा सपना ही तो है!

अस्तित्व क्या है?

अब प्रश्न उठता है: यदि सब कुछ माया है, तो सत्य क्या है? अस्तित्व क्या है?

ज्ञान मार्ग हमें बताता है कि सत्य केवल दो चीज़ों का मिश्रण है:

  1. अनुभव
  2. अनुभवकर्ता

इन दोनों के मिलन को ही “अस्तित्व” या “ब्रह्म” कहा जाता है। बाकी सब माया है, भ्रम है। ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, और “मैं” (अनुभवकर्ता) ब्रह्म का ही अंश है।

माया में जीवन: व्यावहारिक दृष्टिकोण

जब हमें यह ज्ञान हो जाता है कि जगत माया है, तो हमारी जीवन शैली कैसी होनी चाहिए?

  1. साक्षीभाव: शरीर, मन और जगत के क्रियाकलापों को साक्षी भाव से देखें। हम केवल द्रष्टा हैं, कर्ता नहीं।
  2. अनासक्ति: माया में आसक्त न हों। जैसे फिल्म देखते हुए हम जानते हैं कि वह वास्तविक नहीं है, वैसे ही जीवन को जानें।
  3. अहंकार का त्याग: “मैं कर्ता हूँ” का भाव छोड़ें। कोई कुछ नहीं करता, सब अपने आप घटित हो रहा है।
  4. आनंद में रहें: माया का खेल जारी रहेगा, लेकिन हम इसे जानते हुए आनंद से जी सकते हैं।

निष्कर्ष: माया से परे

जो हम देखते हैं, महसूस करते हैं, अनुभव करते हैं – वह सब माया है। वह सब बदलता है, अनित्य है। परंतु इस माया को जानने वाला, अनुभव करने वाला “मैं” स्थिर है, शाश्वत है। वही एकमात्र सत्य है।

त्रिज्ञान के दूसरे दिन, हम इस माया के ज्ञान को समझते हैं। पहले दिन आत्मज्ञान (मैं कौन हूँ?) और दूसरे दिन माया का ज्ञान (जगत क्या है?) के बाद, तीसरे दिन हम ब्रह्म ज्ञान (परम सत्य क्या है?) को समझेंगे, जो त्रिज्ञान का पूर्ण रूप है।

यदि आप माया के इस ज्ञान को अधिक गहराई से समझना चाहते हैं, तो कैवल्याश्रम के त्रिज्ञान कार्यक्रम में आमंत्रित हैं, जहाँ माँ शून्य के मार्गदर्शन में यह ज्ञान विस्तार से समझाया जाता है।


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शून्य बोधिसत्व

कैवल्याश्रम मेरठ के संस्थापक एवं आध्यात्मिक मार्गदर्शक। माँ शून्य के मार्गदर्शन में अद्वैत वेदांत के अनुभवी अध्येता और त्रिज्ञान कार्यक्रम के प्रणेता। साधकों को आत्म-साक्षात्कार का सरल और प्रत्यक्ष मार्ग दिखा रहे हैं। जीवन मंत्र: "स्वयं को जानो, सृष्टि को जानो, ब्रह्म को जानो।

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